इस मुल्क में मुसलमानों के लिए अपने हक और इंसाफ की लड़ाई इतनी आसान नहीं है। जैसे मुसलमान यह लड़ाई लड़ने की शुरुआत करेंगे उनपर चौतरफा रुकावटें आने लगेंगी क्युँकि हकीकत यह है कि इस देश में मुसलमान अघोषित रूप से दोयम दर्जे का नागरिक है जहाँ उससे जुड़े मुद्दों के साथ दोगला व्यवहार किया जाता है।
दलितों जैसे भाग्यशाली नहीं हैं इस देश के मुसलमान , दलितों के साथ तो सब खड़ा हो जाता है , मीडिया , व्यवस्था , राजनैतिक दल और नेता के साथ अपने खुद के विषयों में ही सुस्त पड़ा मुसलमान भी उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हो जाता है , रोहित वेमुला का उदाहरण हो या ऊना का उदाहरण , यह सिद्ध करते हैं कि दलितों के साथ सब हैं , निष्पक्ष रवीश कुमार भी।
परन्तु मुसलमानों के साथ ऐसा नहीं है , उनकी लड़ाई में बाधाएँ ही बाधाएँ हैं , ज़हरीले दुश्मन संघ का मुँह खोले नाग जैसा खतरा है तो भारतीय व्यवस्था का मुसलमानों की किसी भी लड़ाई से मुँह मोड़ने जैसा व्यवहार भी सामने होता है।
भारत की समस्त मीडिया में गज़ब की आपसी समझ है कि 75 चैनलों और हज़ारो समाचार पत्रों में जो एक भी मुस्लिम मुद्दों को या उत्पीड़न को अपने निष्पक्षता के सिद्धांत के अनुसार आन एयर कर देता या प्रिन्ट कर देता। 7:00 बजे से 9:00 बजे तक भूत भूतनी के लिए हर मीडिया चैनल के पास समय तो होता है पर मुसलमानों के उत्पीड़न और मुद्दे के लिए समय नहीं , उदाहरण देखिए कि मिन्हाज अंसारी का मामला 22-23 दिन पुराना हो रहा है पर मीडिया आम सहमति से आखें बंद करके भूत भूतनी का प्रोग्राम चला रहा है , नजीब भी 14 दिन से भगवा गुंडो द्वारा गायब कर दिया गया , उसकी माँ और बहन दिल्ली की सड़कों पर बिलख बिलख कर मदद की गुहार लगा रहीं हैं , जेएनयू स्टुडेन्ट यूनियन विरोध प्रदर्शन कर रहा है परन्तु मीडिया "डीएनडी" के टोल टैक्स और निष्पक्ष रवीश कुमार O2 तथा CO2 में ही मस्त हैं।
मीडिया के बाद यह रुकावट पैदा करती है भारत की कार्यपालिका और वह इसलिए कि वह जानती है कि मुसलमानों के लिए ऊपर से कोई आदेश नहीं आएगा तो थुलथुल बनकर बैठे रहो और लीपापोती करते रहो।
भारत की न्यायपालिका मुसलमानों से अलग जुड़े किसी मुद्दे पर निष्पक्ष तो रहती है परन्तु जैसे ही एक पक्ष मुसलमान अथवा मुसलमानों से जुड़ा विषय होता है अदालत के अंदर सावरकर और गोवलकर की आत्मा घुस जाती है। मुसलमानों से जुड़े मुद्दों और घटनाओं में मनुस्मृति को उद्धत करके दिए गये फैसले इसके उदाहरण हैं , और यह जानबूझकर उद्धत किए गये।
मुसलमानों के उत्पीड़न और उससे संबंधित विषयों को लेकर देश की विधायिका भी "बैलेंसवादी" है , एक अदना सा सांसद पप्पू यादव संसद में 15 से 30 मिनट बोलने की अनुमति पा सकता है परन्तु "असदुद्दीन ओवैसी" को अनुमति सदैव 2 मिनट से 5 मिनट की ही दी जाती हैऔर इसके अतिरिक्त भी संसद सदैव मुस्लिम उत्पीड़न पर खामोश रही है , बैलेंसवाद के कारण 1 मुद्दे को यदि छोड़ दिया जाए।
मुसलमानों के संघर्ष से वह दलित भी दूर रहेगा जो अपने उत्पीड़न के मामलों में मुसलमानों से मिली मदद को लेकर इतराता है और सीना फुलाता है , मुस्लिम उत्पीड़न पर मिलकर संघर्ष करना तो दूर चुपचाप कन्नी काट लेता है , दिलीप सी मंडल जैसे दलित बुद्धिजीवी भी , कल इसी विषय पर उनकी वाल पर मैने एक सवाल पूछ लिया तो वह जवाब ना दे सके कि नजीब और मिन्हाज की लड़ाई से वह दलित दूर क्युँ हैं जो ऊना और रोहित वेमुला काँड में मुसलमानों के साथ का डंका पीटते थे।
और सबसे बड़ी समस्या राजनैतिक अस्पृश्यता पैदा करती है जब दलितों के मुद्दों पर बढ़ चढ़ कर बोलने वाले केजरीवाल , राहुल , मुलायम या मायावती मुस्लिम मुद्दों पर अंधे और बहरे हो जाते हैं। और इनको ही क्युँ दोष दें जबकि ओवैसी , आज़म , नसीमुद्दीन , गुलामनबी और उन जैसे तमाम मुस्लिम नेता ही चुप्पी साधे रहते हैं , दिल्ली से हजारों किमी दूर ऊना जाने के लिए राहुल केजरीवाल और मायावती के पास समय तो होता है परन्तु उनके घर से कुछेक 10 किमी की दूरी पर मुजीब की माँ और बहन से जाकर मिलने का समय नहीं है उनके पास , मुसलमानों का एकतरफा वोट लेने वाले मुलायम और उनके समधी लालू तथा नितीश भी उसी नीति पर चुप्पी साधे रहते हैं। क्युँकि वह अपने 7-8% गैरमुस्लिम वोट को 20% मुसलमानों की इंसाफ की लड़ाई लड़कर खोना नहीं चाहते।
और इन सब के बाद एक और रुकावट है "कोढ़ में खाज" अर्थात मुसलमानों की जो लड़ाई लड़ने की शुरुआत होती है तो उस लड़ाई की बकायदा कीमत वसूलने की कोशिश खुद उस लड़ाई को लड़ने वाले एक दो मुसलमान ही करते हैं कि उनको सारी लड़ाई का श्रेय मिले जिससे उनकी नेतागिरी चमक जाए और इसी बात पर लड़ाई दो फाड़ या चार फाड़ हो जाती है मतलब कि "खलीफा" इफेक्ट। ध्यान रखें कि उनका उद्देश्य निःस्वार्थ नहीं होता बल्कि राजनीतिक ज़मीन बनाने की भरपूर कीमत ऐसे लोग वसूलना चाहते हैं। उदाहरण देखिए
यह "कोढ़ में खाज" मुसलमानों में उनके जन्म से विरासत में मिली है परन्तु इधर जो दो मुस्लिम उत्पीड़न हुए हैं उसकी लड़ाई लड़ने वाले कुछ लोग बहुत घटिया स्तर तक लोग जा चुके हैं जिस पर सबूतों के साथ पोस्ट इस लड़ाई के सफल होने पर करूँगा।
किसी को न्याय दिलाने के लिए उसे बंधक बनाना और अपनी मर्जी से उसे बोलने और निर्णय लेने से रोकना ही यदि उसकी मदद है , उस पर पहरा लगा देना ही यदि उस हक की लड़ाई की वसूली जाने वाली कीमत है तो ऐसी हकपरस्ती पर लानत है , मिन्हाज अंसारी की पुलिस द्वारा हत्या किए जाने के बाद उसके परिवार की मदद के नाम पर उसका मानसिक टार्चर किया जा रहा है , कुछ लोगों का प्रयास है कि वह परिवार केवल उनकी उंगलियों पर नाचे और केवल उनके नाम की माला जपे और केवल उनकी ही वाह वाही करे , दरअसल यह लोग हक पसंद नहीं बल्कि "दलाल" हैं ।
बहुत से सबूत हैं मेरे पास पर फिलहाल इस पर फिर कभी , नहीं तो जो भी लड़ाई लड़ी जा रही है वह बिखर जाएगी।
कहने का अर्थ यह है कि चौतरफा बाहरी रुकावटों के बाद और इतनी मुश्किलों के बाद भी देश के मुसलमानों को यदि अक्ल नहीं तो उनका इस देश में अंजाम "अखलाक और मिन्हाज" से भी बदतर होगा ।
आप चाहें तो कहीं लिख लीजिए , क्युँकि इस देश में मुसलमान अघोषित रूप से दोयम दर्जे का नागरिक ही है।
यह आर्टिकल मोहम्मद जाहिद का है
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