रमज़ान के पवित्र महीने में ग़रीबों और वंचितों की सहायता की बहुत सिफारिश की गयी है और दूसरी ओर रोज़े की भूख- प्यास वंचितों एवं परेशान व्यक्तियों की स्थिति के और बेहतर ढंग से समझने का कारण बनती है। इस प्रकार धनी, निर्धन के निकट हो जाता है और उसकी भावनाएं नर्म व कोमल हो जाती हैं और वह अधिक भलाई व उपकार करता है और समाज एक इंसान को दूसरे इंसान की सहायता को सीखाता है। किसी इमाम से पूछा गया कि रोज़ा क्यों वाजिब किया गया है? इसके जवाब में इमाम ने फरमाया ताकि धनी, भूख की पीड़ा को समझे और निर्धन पर ध्यान दे।“रमज़ान के पवित्र महीने का अर्थ केवल उसके लिए भूख- प्यास का सहन करना नहीं है वह रोज़े की हालत में विश्व के समस्त भूखे लोगों के बारे में सोचता है। जिन लोगों के पास खाने के लिए कुछ नहीं है। वह इस बारे में कहता है” मैं रोज़ा रखता हूं और उसके कुछ घंटों के बाद इफ्तार करता हूंयानी रोज़ा खोलता हूं किन्तु उसी समय मैं जानता हूं कि समूचे विश्व में ऐसे लोग भी हैं जो भूखे हैं और उन्हें इस बात की आशा भी नहीं है कि खाने के लिए कुछ मिल सकेगा। वास्तव में रोज़ा इस बातका कारण बनता है कि हम निर्धनों व ग़रीबों से सहानुभूति करें और उनकी कठिनाइयों को दूर करने का प्रयास करें।“मुफ़्ती सैफुल्लाह ख़ां अस्दक़ीख़लीफ़ाः ह़ुज़ूर ख़्वाजा सय्यद महबूबे औलिया व इस्लामिक धर्म गुर
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